चिट्ठी लिखने वालों केजरीवाल, ममता बनर्जी, के. चंद्रशेखर राव, भगवंत मान, तेजस्वी यादव, फारूक अब्दुल्ला, शरद पवार, उद्धव ठाकरे व अखिलेश यादव शामिल
टाकिंग पंजाब
नई दिल्ली। मनीष सिसोदिया की गिरफ्तारी यह दिखाती है कि भारत एक लोकतांत्रिक देश से तानाशाही शासन में तब्दील हो गया है सिसोदिया के खिलाफ लगाए गए आरोप पूरी तरह बेबुनियाद है व यह राजनीतिक षडयंत्र के तहत की गई कार्रवाई है। इस गिरफ्तारी ने पूरे देश की आवाम को गुस्से से भर दिया है। यह शब्द सिसोदिया केस पर 9 विपक्षी नेताओं की तरफ से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को लिखी गई चिट्ठी की हैं। इस चिट्ठी लिखने वाले 9 विपक्षी नेताओं में दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल भी शामिल हैं। केजरीवाल के अलावा इस चिठ्ठी को लिखने वालों में बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी, बीआरएस चीफ के चंद्रशेखर राव, पंजाब के सीएम भगवंत मान, राजद नेता तेजस्वी यादव, नेशनल कॉन्फ्रेंस लीडर फारूक अब्दुल्ला, राकांपा चीफ शरद पवार, शिवसेना ठाकरे ग्रुप के चीफ उद्धव ठाकरे व सपा चीफ अखिलेश यादव शामिल हैं। प्रधानमंत्री को लिखी इस चिट्ठी की मुख्य बातों का जिक्र करें तो इसमें इन नेताओं ने लिखा है कि … आदरणीय प्रधानमंत्री जी, हमें भरोसा है कि आपको आज भी लगता है कि भारत एक लोकतांत्रिक देश है। विपक्षी नेताओं के खिलाफ केंद्रीय एजेंसियों का मनमाना इस्तेमाल यह दिखाता है कि हम एक लोकतंत्र से तानाशाही में तब्दील हो गए हैं। लंबी तलाश के बाद 26 फरवरी 2023 को मनीष सिसोदिया को सीबीआई ने गिरफ्तार कर लिया। कथित तौर पर गड़बड़ी के आरोप में यह गिरफ्तारी की गई, वह भी बिना कोई सबूत दिखाए। सिसोदिया जी के खिलाफ लगाए गए आरोप पूरी तरह बेबुनियाद है। यह राजनीतिक षडयंत्र के तहत की गई कार्रवाई है। इस गिरफ्तारी ने पूरे देश की आवाम को गुस्से से भर दिया है। दुनिया भर में मनीष सिसोदिया दिल्ली स्कूल एजुकेशन में बदलाव के लिए पहचाने जाते हैं।
उनकी गिरफ्तारी को दुनिया भर में बदले की भावना से की गई राजनीतिक कार्रवाई के उदाहरण के तौर पर देखा जा रहा है। इससे वह बात भी पुष्ट हो रही है, जिसके बारे में पूरी दुनिया आशंकित है कि भाजपा के तानाशाही शासन के दौरान भारत के लोकतांत्रिक मूल्य खतरे में हैं।आपके शासन में 2014 से अब तक जितने राजनेताओं की गिरफ्तारी हुई, छापे मारे गए या पूछताछ हुई, उनमें ज्यादातर विपक्षी नेता हैं। मजेदार बात यह है कि उन विपक्षी नेताओं के खिलाफ केंद्रीय एजेंसियों की जांच धीमी पड़ जाती है, जो बाद में भाजपा जॉइन कर लेते हैं। उदाहरण के तौर पर पूर्व कांग्रेस नेता व असम के मौजूदा सीएम हेमंत बिस्व सरमा। सीबीआई व ईडी ने 2014-2015 में शारदा चिटफंड घोटाले में उनके खिलाफ जांच शुरू की। हालांकि जबसे उन्होंने भाजपा जॉइन की, तब से केस आगे नहीं बढ़ा है। इसी तरह नारदा स्टिंग ऑपरेशन केस में तृणमूल नेता शुभेंदु अधिकारी व मुकुल रॉय ईडी व सीबीआई के रडार पर थे। विधानसभा चुनाव से पहले इन लोगों ने भाजपा जॉइन कर ली और तब से केस में कोई खास तरक्की नहीं हुई है। महाराष्ट्र के नारायण राणे केस को ले लीजिए व ऐसे कई उदाहरण हैं। साल 2014 से विपक्षी दलों के नेताओं पर छापेमारी, उनके खिलाफ मामले व उनकी गिरफ्तारी में इजाफा हुआ है। चाहे वह राष्ट्रीय जनता दल के लालू प्रसाद यादव हों, शिवसेना के संजय राउत हों, समाजवादी पार्टी के आजम खान हों, एनसीपी के नवाब मलिक , अनिल देशमुख हों या तृणमूल के कांग्रेस के अभिषेक बनर्जी, इन सभी नेताओं के खिलाफ जांच एजेंसियों ने जिस तरह की कार्रवाई की है, उससे संदेश पैदा होता है कि केंद्र सरकार के अंतर्गत काम कर रही हैं। ऐसे कई मामलों में केस या गिरफ्तारी तब हुई जब चुनाव होने वाले थे।
इससे ये साफ पता चलता है कि जांच एंजेसियों के ये एक्शन पॉलिटिकली मोटिवेटिड थे। जिस तरीके से विपक्ष के प्रमुख नेताओं को टारगेट किया जा रहा है, उससे इस आरोप को बल मिलता है कि आपकी सरकार जांच एजेंसियों की मदद लेकर विपक्ष काे खत्म करने की कोशिश कर रही है। साफ है कि इन एजेंसियों की प्राथमिकताएं गलत हैं। एक इंटरनेशनल फॉरेंसिक फाइनेंशियल रिसर्च रिपोर्ट के बाद एसबीआई व एलआईसी ने एक कंपनी के चलते अपने शेयरों के मार्केट कैपिटलाइजेशन में 78 हजार करोड़ से ज्यादा रुपए गंवा दिए हैं। इन जांच एजेंसियों को इस कंपनी की आर्थिक विसंगतियों की जांच करने के लिए क्यों नहीं लगाया गया है, जबकि इस कंपनी में जनता का पैसा लगा है ? इसके अलावा एक और भी मुद्दा है जहां देश के संघवाद के खिलाफ जंग छेड़ी जा रही है।
देश भर में गवर्नरों के ऑफिस संविधान के प्रावधानों के खिलाफ जाकर राज्य के कामकाज में अड़चन डालने लगे हैं। वह लोकतांत्रित तरीके से चुनी गईं राज्य सरकारों को जानबूझ कर नीचा दिखा रहे हैं और अपनी मर्जी के मुताबिक सरकारों के कामकाज को प्रभावित कर रहे हैं। चाहे वह महाराष्ट्र, तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल, पंजाब, तेलंगाना या दिल्ली के गवर्नर हों, वह आजकल केंद्र व गैर-भाजपा शासित प्रदेशों की सरकारों के बीच गहरी होती खाई का चेहरा बन गए हैं। वह मिलजुल कर काम करने वाली संघवाद की भावना के लिए खतरा बन गए हैं। इस भावना को अब तक राज्यों ने बरकरार रखा है, बावजूद इसके कि केंद्र की तरफ से इसमें कोई योगदान नहीं होता है। इसके चलते देश की जनता भारतीय लोकतंत्र में गवर्नर्स के रोल पर सवाल उठाने लगी है।
चुनावी मैदान के बाहर विरोधी पार्टियों से हिसाब बराबर करने के लिए केंद्रीय एजेंसियों व गवर्नर जैसे संवैधानिक दफ्तरों का गलत इस्तेमाल निंदनीय है। यह हमारे लोकतंत्र के लिए ठीक नहीं है। 2014 से जिस तरह इन एजेंसियों का दुरुपयोग हुआ है, उससे इनकी छवि खराब हुई है व उनकी स्वायत्ता और निष्पक्षता पर सवाल खड़े हुए हैं। इन एजेंसियों में लोगों का भरोसा खत्म होने लगा है। डेमोक्रेसी में लोगों की इच्छा सर्वोपरि होती है। लोगों ने जो फैसला सुनाया है उसका आदर किया जाना चाहिए, भले ही वह ऐसी पार्टी के पक्ष में दिया गया हो जिसकी सोच आपसे मेल नहीं खाती है।